Wednesday, April 13, 2005

ग़ज़ल

  • [एक]

बोझ से दुहरी दिखाई देती हैं‚
ये सदी ठहरी दिखाई देती हैं।

दुःख —दर्द की बातें करे जहाँ‚
वो सभा बहरी दिखाई दोती हैं।

गाँव में आतंक है जिसका‚
सभ्यता शहरी दिखाई देती हैं।

अगस्त्य की तरह पीने लगे हैं‚
जो नदी गहरी दिखाई देती हैं।

जूठे बर्तन माँजती भूख में‚
सेठ की महरी दिखाई देती हैं।
***


  • [दो]

है देश समस्याओं से तंग देखिये‚
और उन्हें सूझता हुड़दंग देखिये।

ताकतें फौलाद सी लिये हुए हैं जो
आज उन पे चढ़ रहा है जंग देखिये।

जो हमारा है वहीं गन्तव्य आपका‚
दोंनों नहीं हैं राह पर संग देखिये।

कीचड़ उछालकर हम‚ होली मना रहे
पिचकारियों में नहीं है रंग देखिये।

शांति बनाये रक्खें जो लोग कह रहे
शांति उनकी बदौलत है भंग देखिये।

सियासी दाँव—पेच का है दृश्य देश में
हम देख देख हो रहे हैं दृग देखिये।
***

-महेश मूलचंदानी

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